Do you know what is the difference between a smart successful person and a wavering minded loser ? It’s simple. The winner remains steadfast. He doesn’t waste his time & energy in irrelevant activities.
Lord Shri Krishna Answers Arjun
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || 55||
This world has been called mṛiga tṛiṣhṇā which means it’s like the mirage. The material energy Maya also creates an illusion of happiness. The losers keep running after that illusory happiness in the hope of quenching the thirst of their senses.
जब मनुष्य ऐसी मन को दूषित करने वाली कामनाओं का परित्याग कर देता है और आत्मज्ञान को अनुभव कर संतुष्ट हो जाता है, तब ऐसा मनुष्य दिव्य चेतना में स्थित रहता है।
Now this explanation of Bhagavad Gita is very deep and brings out the difference between a super achiever in life and an ordinary person who continues to struggle with his pains & sufferings.
According to Steve Jobs, the key to being truly smart isn’t deep expertise in one field, but instead *it is the ability to zoom out of any condition.*
From the top you can see the whole picture; you can figure out the shortest route.
But then how do you develop the ability to get a bird’s eye view of a situation in this way?
Now this is very important. *You can only have this ability to quickly zoom out & zoom in frequently, only when you are able to quickly cut off your sense attachments.
Your attachment to senses, doesn’t allow you to soar high, and change your life path easily. जब तक आप संसार के आकर्षणों में जकड़े रहेंगे तब तक कैसे ऊपर उठा पाएंगे. Your sense attractions, restrict your choices in life.
भगवान् श्री कृष्णा कहते हैं प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् इसका अर्थ थोडा गहरा है की जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है|
त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है पर उसको अपना मान लिया गया है। भगवान् श्री कृष्णा फिर कहते हैं आत्मन्येवात्मना तुष्टः जिस कालमें मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग कर देता है तो वह अपने आपसे अपने आपमें ही सन्तुष्ट रहता है| अर्थात् अपने आपमें सहज स्वाभाविक सन्तोष होता है।
स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते । कामनाओं का सर्वथा त्याग होने पर बुद्धि को स्थिर बनाना नहीं पड़ता, वह स्वतः स्वाभाविक स्थिर हो जाती है।
स्वरूप से संतुष्ट— means to be content with oneself. इसे भगवान् श्री कृष्ण पहला स्थितप्रज्ञ का लक्षण कहते हैं। हम कभी भी स्वयं से संतुष्ट नहीं होते हैं। हमें अकेले कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि अकेले में हम अपने ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, कंपनी चाहिए,।
थोड़ी देर भी अकेले रहना मुश्किल है| तुरंत whatsapp खोल लेंगे, Television खोलो, फ़ोन पर बातें करने लगेंगे।
भगवान् श्री कृष्ण पहला सूत्र देते हैं, स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त। जो अपने से तृप्त नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ बहती रहेगी।
हम चौबीस घंटे बहते रहते हैं यहां—वहां। Friends change करने पड़ते हैं, आज इस गर्ल friend के साथ तो कल दूसरी, फिर दौड़ शुरू होती है—जल्दी बदलो—नए सेंसेशन की, सब पुराना पड़ता जाता है—नया लाओ, we keep on looking for variety।
लेकिन कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट हूं? तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूंगा? जब मैं भीतर ही बीमार हूं, तो मैं किसी और के साथ होकर भी कैसे स्वस्थ हो सकूंगा? जब दुख मेरे भीतर ही है, तब किसी और का सुख मुझे कैसे सुख दे पाएगा?
*दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है।* जब तक यह भ्रम बना रहता है कि संतोष कहीं बहार मिल जाएगा—तब तक जन्मों—जन्मों तक प्रज्ञा अस्थिर रहेगी। जब तक माया के इस Illusion में रहेंगे की , इस स्त्री में सुख नहीं मिला, दूसरी में मिल सकता है, इस मकान में सुख नहीं मिला, दूसरे बड़े मकान में मिल सकता है, इस कार में सुख नहीं मिला, दूसरी Mercedes कार में मिल सकता है—जब तक यह भ्रम बना रहेगा तब तक प्रज्ञा डोलती ही रहेगी।
Till the time you think Happiness can be found outside somewhere? Maybe I will become happy when I get a bigger Car or I will be happy when I get a big dream house.*
जब तक चित्त सोचता है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है।
यही मृग—मरीचिका है, mṛiga tṛiṣhṇā। सुख की खोज में बहार चित्त दौड़ता रहता है।
कृष्ण कहते हैं, जब आपको ज्ञान हो जाता है की सुख यहीं है भीतर, अपने में, तभी प्रज्ञा की स्थिरता उपलब्ध होती है।
और बस यही संपूर्ण मानव जीवन की यात्रा का सार है| This is the entire life path of the journey to self realization.
We are all Spiritual warriors. We must constantly keep fighting, our inner enemies of ego gratification and sense attractions. The moment we are able to overcome our sense attractions, we start creating our own destiny. It is then We Start Designing An Extraordinary Life For Ourselves.
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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