Bhagavad Gita Live

Revealed! The Spiritual Secret to Succeed In Life – How To Overcome Anger, Fear, Depression?

We all know that negative emotions like Anger, frustration, helplessness, Fear, Guilt, hate, jealousy, and sadness are harmful to our health, wealth, and overall wellbeing. Still, a normal man is so helpless in overcoming these negative emotions.*

वास्तव में *सब खेल संसार के आकर्षणों का है| जो बुद्धिमान मनुष्य हैं वे इंद्रियों के आकर्षणों से खुद को विचलित नहीं होने देते।* और जो दीन हैं, वोह बेचारे माया के जाल में फँस कर जन्मों जन्मों तक दर्द और पीड़ा झेलता रहता है | 

Lord Shri Krishna says:

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || 58||

जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को, उनके विषय भोगों से उसी प्रकार खींच लेते हैं, जैसे एक कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके उन्हें भीतर कर लेता है, वह मनुष्य  दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।

आप में से कई लोग हो सकता है बोलें की आखिर इन्द्रियों की तुष्टि करने में समस्या क्या है| What is the problem?

श्रीमद्भागवतम् में वर्णन किया गया है

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ।।

 

 “जैसे आग में घी की आहुति डालने से वह शांत नहीं होती अपितु इससे आग की लपटें और भीषणता से भड़कती है। उसी प्रकार इन्द्रियों की तृष्टि करने से वे शांत नहीं होतीं।” जैसे कहीं शरीर में खाज हो जाती है तो खुजलाहट करने की प्रबल इच्छा होती है| पर खुजली करने से थोड़ी देर तो रहत मिल जाती है पर बाद में वोह खाज बड़ी कष्ट दायक हो जाती है |

मन और इन्द्रियाँ सुख के लिए असंख्य कामनाएँ उत्पन्न करती हैं| लेकिन जब तक हम इनकी पूर्ति के प्रयत्न में लगे रहते हैं, तब ये सब सुख मृग-तृष्णा के भ्रम के समान होते हैं।

इसलिए प्रबुद्ध मनुष्य, बुद्धिमानी से मन और इन्द्रियों का स्वामी बन जाता है। प्रबुद्ध मनुष्य भी कछुए की तरह अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है और परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुरूप उन्हे संकुचित कर सकता है।

Maharishi Patanjali has called this as Pratyahara. Withdrawal of the senses is Pratyahara. अष्टांग योग के आठ अंगों में से प्रत्याहार पांचवां अंग है|

स्वविषय-असम्प्रयोगे, चित्तस्य-स्वरूपानुकार-इव-इन्द्रियाणाम् .प्रत्याहार:॥२.५४॥

जब सभी इन्द्रियों का अपने –अपने कार्यों के साथ सम्बन्ध न होने से वे इन्द्रियां चित्त के वास्तविक स्वरूप के जैसे हो जाती हैं , उसे प्रत्याहार कहते हैं| प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं,

योग की दृष्टि में इंद्रियों के दो रूप हैं। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें बाहर से दिखाई पड़ता है, या यह कहें की इंद्रिय का शरीर। जैसे यह आँख जो देखती है या यह कान जो सुनते हैं.| और दूसरा है इंद्रिय का वह स्वरुप जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन वोह इंद्रिय का प्राण है, या यह कहें की इंद्रिय की  आत्मा है।

इस तरह प्रत्येक इंद्रिय का एक शरीर है और प्रत्येक इंद्रिय का प्राण है। आंख सिर्फ देखने का काम ही नहीं करती, देखने की आकांक्षा, देखने का रस भी उसके पीछे छिपा है। देखने की वासना भी उसके पीछे हिलीरें लेती है। वही वासना असली इंद्रिय है।

इन्द्रियों का सही उपयोग क्या है? जब आंख बिना देखने की वासना के देखती है, तब जो आंख के सामने आ जाता है, वह देखा जाता है। तब जो भोजन सामने आ जाता है, वह कर लिया जाता है। तब जीभ उस भोजन के लिए लार नहीं टपकाती है जो भोजन सामने नहीं है| आपमें से कितने लोगों जब भी आप अपने प्रिय पकवान या प्रिय मिठाई के बारे में सोचते हैं तो आपकी लार टपकने लगती है| भोजन अभी सामने नहीं है लेकिन सोच कर ही लार टपक पड़ी| जब इन्द्रियों का सही उपयोग होता है तो जो कान में पड़ जाता है, वह सुन लिया जाता है। फिर कान तड़पते नहीं हैं कुछ विशेष सुनने के लिए, फिर कान तड़पते नहीं हैं अपनी प्रशंसा सुनने के लिए, कान तड़पते नहीं हैं अपनी प्रियतमा की मधुर आवाज़ सुनने के लिए |

महा कवि कालिदास, उनकी पत्नी मायके चली गयी कुछ दिनों के लिए| जब कालिदास भागे हैं पत्नी से मिलने क्यूंकि विरह की अग्नि थी, मिलने की वासना थी, उस वक्त उनकी आँखें  functional नहीं है| उस वक्त वे सांप को भी  रस्सी समझ लेते हैं। आंख अपना function नहीं कर पा रही है। पत्नी के घर के बहार साप लटका हुआ है, पर वासना इतनी तीव्र है, की सांप को नहीं वोह बस रस्सी को ही देखना चाहती है। आँख वोह नहीं देख रही है जो वास्तविकता है| आँख वोह देख रही है जो मन देखना चाहता है|

जब हाथ से मैं जमीन छूता हुं या हाथ से मैं पत्थर छूता हूं तब कोई वासना नहीं है वह, सिर्फ स्पर्श है, एक भौतिक घटना है, कोई मानसिक आरोपण नहीं।

लेकिन जब मैं किसी को प्रेम करता हूं और उसके हाथ को छूता हूं? तब हाथ सिर्फ छू ही नहीं रहा है, हाथ कुछ और भी कर रहा है। हाथ कोई सपना भी देख रहा है।

वह जो भीतरी हाथ है, जो सपना देख रहा है, इस भीतरी हाथ के सिकोड़ लेने की बात भगवान् कृष्ण कह रहे हैं|

तो हम इन भीतर की इंद्रियों को कैसे सिकोड़ेंगे? एक छोटा—सा सूत्र, है। बहुत छोटा—सा सूत्र है भीतर की इंद्रियों को सिकोड़ने का।

एक दिन एक संत प्रवचन कर रहे थे. बहुत लोग उन्हें सुनने आ गए हैं। एक आदमी सामने ही बैठा हुआ पैर का अंगूठा हिला रहा है। साधु ने बोलते बोलते  बीच में उस आदमी से कहा कि क्यों भाई, यह पैर का अंगूठा क्यों हिलाते हो? वह आदमी भी चौंका, और लोग भी चौंके, कि कहां बात चल रही थी, कहां उस आदमी के पैर का अंगूठा! संत ने कहा, यह पैर का अंगूठा क्यों हिल रहा है? उस आदमी का तत्काल अंगूठा रुक गया। उस आदमी ने कहा, आप भी कैसी बातें देख लेते हैं! छोड़िए भी। संत ने कहा, नहीं, मैं जानना चाहता हूं कि अंगूठा क्यों हिलता था? मुझे उत्तर दो। उस आदमी ने कहा, अब आप पूछते हैं, तो मुश्किल में डालते हैं। सच बात यह है कि मुझे पता ही नहीं था कि पैर का अंगूठा हिल रहा है, और जैसे ही पता चला, रुक गया।

बस यही सूत्र है| संत ने कहा जो अंतर-कंपन हैं, वे पता चलते ही रुक जाते हैं। भीतर की इंद्रियों को सिकोड़ना नहीं पड़ता, सिर्फ इसका पता चलना कि भीतर इंद्रिय है और गति कर रही है, इसका बोध ही उनका सिकुड़ना हो जाता है- Only the awareness | आपको क्रोध आया, लेकिन जैसे ही यह बोध हुआ की में क्रोधित हूँ, वोह शांत हो गया| The very awareness।

भीतर की इंद्रियां इतनी संकोचशील है कि जरा-सी भी चेतना नहीं सह पातीं। उनके लिए अचेतना जरूरी माध्यम है। इसलिए जो अपने भीतर की इंद्रियों के प्रति जागने लगता है, उसकी भीतर की इंद्रियां सिकुड़ने लगती हैं, अपने आप सिकुड़ने लगती हैं। बाहर की इंद्रियां बाहर पड़ी रह जाती हैं, भीतर की इंद्रियां सिकुड़कर अंदर चली जाती हैं। ऐसी स्थिति व्यक्ति की समाधिस्थ स्थिति बन जाती है।

और बस यही संपूर्ण मानव जीवन की यात्रा का सार है| This is the entire life path of the journey to self realization. जहाँ आपको अपने दुर्गुणों का अपने अज्ञान का बोध हो गया, वहीं से आपकी यात्रा शुरू हो गयी ज्ञान की तरफ। बस यही है आपकी संपूर्ण यात्रा from Finite to the Infinite|

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

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