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कर्म के प्रति मनोदृष्टि कैसी हो? How The Right Attitude To Work Can Transform Your Life?| Bhagavad Gita 2.47

Do you know what is the secret of practicing Karma Yoga and getting rid of all our pains & sufferings in life? It is by inculcating the right attitude towards work.

वेद प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार ईश्वरार्पण बुद्धि अर्थात ऐसी बुद्धि जो ईश्वर को समर्पित हो, और निष्काम भाव से किये गये कर्म दोनों मिल कर अन्तकरण को शुद्ध करते हैं। अन्तकरण को शुद्ध किये बिना आत्मबोध नहीं हो सकता. आत्मबोध के पूर्व चित्तशुद्धि होना अनिवार्य है।

Lord Shri Krishna says

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर माते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || 47 ||

भगवान् श्री कृष्णा says You have a right to perform your prescribed duties, but you are not entitled to the fruits of your actions. Never consider yourself, to be the cause of the results of your activities, nor be attached to inaction.

भगवान् कहते हैं तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो।

भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कर्मण्येवाधिकारस्ते – अर्थात कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य ही एकमात्र कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। अगर आप कर्मोंको अपने लिये करोगे तो बन्धनमें पड़ जाओगे और अगर कर्मोंको न करके आलस्य प्रमादमें पड़े रहेंगे तो निरंतर जन्म मृत्यु के चक्र में फंसे रहेंगे। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल कर्तव्यकर्म करनेमें ही अधिकार है वह भी सेवारूप में|

यह मनुष्य शरीर नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है जिससे आप सेवारूप कर्म करके  अपना उद्धार कर ले।

भगवान् श्री कृष्णा आगे कहते हैं मा फलेषु कदाचन  अर्थात फलमें तेरा किञ्चिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् फलकी प्राप्तिमें तेरी स्वतन्त्रता नहीं है, क्योंकि फलका विधान तो मेरे अधीन है। अतः फलकी इच्छा न रखकर कर्तव्यकर्म कर।

अगर तू फलकी इच्छा रखकर कर्म करेगा तो तू बँध जायेगा  

भगवान् इस श्लोक में आगे कहते हैं की *मा कर्मफलहेतुर्भूः   तू कर्मफलका हेतु भी मत बन। तात्पर्य है कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि कर्मसामग्रीके साथ अपनी किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं रखनी चाहिये क्योंकि इनमें ममता होनेसे मनुष्य कर्मफलका हेतु बन जाता है।

भगवान् इस श्लोक में आगे कहते हैं मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि –  कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्ति नहीं होनी चाहिये।* कारण यह की यदि कर्म न करनेमें आसक्ति हुई तो उससे आलस्य प्रमाद आदि होंगे। इसलिए जो बंधन कर्मफलमें आसक्ति रखने से उत्पन्न होता है, वैसा ही बन्धन कर्म न करनेमें, आलस्य प्रमाद आदि होनेसे होता है | क्योंकि आलस्यप्रमाद भी एक भोग ही है अर्थात् उन आलस्यप्रमाद का भी एक सुख होता है जो तमोगुण है   ।

This shloka  gives four instructions regarding the science of Karma:

1) Do your duty, but do not concern yourself with the results.

2) The fruits of your actions are not for your enjoyment.

3) Even while working, give up the pride of doership.

4) Do not be attached to inaction.

We are all Spiritual warriors. We must constantly keep fighting, our inner enemies of ego gratification and sense attractions. It is then We Start Designing An Extraordinary Life For Ourselves.

 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 

 शान्तिः शान्तिः शान्तिः 

 

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