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Bhagavad Gita Sudhanshu Goswami

Why Do we Utilize only 3-5% of Our Intellect? आपकी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा क्या है? | Bhagavad Gita 2.49

Do you know, the attitude to work is most important, whatever may be the actual value of the work? We are so fortunate to have got a birth as human Species who are endowed with intellect and discrimination. It is shameful, that people do not use the power of intellect and discrimination given to them, and they rather surrender themselves as slaves to their Vasnas and worldly desires, forgetting the glory and blessedness of their real Self.

Lord Shri Krishna says, Seek refuge in the equanimity born out of knowledge. Through the purified buddhi man attains the supreme.

Lord Shri Krishna says

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव: || 49||

भगवान् श्री कृष्णा कहते हैं की हे अर्जुन!इस समत्वरूप बुद्धियोग के मुकाबले  सकाम कर्म करना अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु कर्म करने वाले अत्यन्त दीन हैं।

जो समत्व बुद्धि से ईश्वराराधनार्थ किये जानेवाले कर्म हैं उनकी अपेक्षा सकाम कर्म निकृष्ट हैं क्योंकि जो मनुष्य कर्मफल की चाह रखकर कर्म करते हैं वे जन्म मरण के बंधन में फंसे रहते हैं ।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन दिव्य ज्ञान और अन्तर्दृष्टि की शरण ग्रहण करो, फलों की आसक्ति युक्त कर्मों से दूर रहो|

Seek refuge in divine knowledge and insight, O Arjun, and discard reward-seeking actions that are certainly inferior to works performed with the intellect established in divine knowledge. Miserly are those who seek to enjoy the fruits of their works.

और जो लोग बिना फल की आसक्ति के, पूर्ण समर्पित होकर, समाज के कल्याणार्थ, अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं, वे श्रेष्ठ कहलाते हैं| और वे लोग जो अपने कर्मों के फल भगवान को अर्पित कर देते हैं, वे वास्तव में ज्ञानी हैं। इस श्लोक में कृपण शब्द प्रयुक्त हुआ है।

श्रीमद्भागवतम् में इस शब्द का वर्णन किया गया है:

दरिद्रो यस्त्वसंतुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः।

जिसके चित्त में असन्तोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है,वही ‘कृपण’ है। जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है” कृपण वह है, जिसका इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं है।”

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद् – बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकाम भाव से कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि समता के बिना कर्मों में उद्धार करने की ताकत नहीं है। कर्मों में समता ही कुशलता है। दूरेण  कहने का तात्पर्य है कि जैसे प्रकाश और अन्धकार कभी समकक्ष नहीं हो सकते ऐसे ही बुद्धि योग और सकाम कर्म भी कभी समकक्ष नहीं हो सकते।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं 

बुद्धौ शरणमन्विच्छ   तू बुद्धि (समता) की शरण ले। समतामें निरन्तर स्थित रहना ही उसकी शरण लेना है। समता में स्थित रहने से ही तुझे स्वरूप में अपनी स्थिति का अनुभव होगा।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं 

कृपणाः फलहेतवः   कर्मों के फल का हेतु बनना अत्यन्त निकृष्ट है। कर्म कर्मफल के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेना ही कर्मफल का हेतु बनना है।

आप सभी ने भक्ति योग, ज्ञान योग कर्म योग के बारे में तो सुना होगा, पर यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण बुद्धि योग की बात कर रहे हैं.

यह बुद्धि योग है क्या?
उपनिषदों में अन्तः करण की निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि कहा गया है तथा संकल्पात्मक वृत्ति को मन की संज्ञा दी गयी है। जब मन दृढ़ता की स्तिथि में रहता है, जब मन बुद्धि के अनुशासन में रहता है उस स्तिथि को  बुद्धियोग कहते हैं। मन को बुद्धि के अनुशासन में लाकर उसके निर्देशानुसार काम करने के प्रयत्न को बुद्धियोग कहते हैं।

Science has proved, श्रेष्ठतम मनुष्य भी अपनी बुद्धि के  दस प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं, कुल  दस प्रतिशत, वह भी श्रेष्ठतम! श्रेष्ठतम यानी कोई आइंस्टीन जैसा व्यक्ति । तो जो सामान्य मनुष्य है वह बुद्धि का उपयोग दो—तीन परसेंट, से ज्यादा नहीं करता।

इसलिए जब भगवान् कृष्‍ण एक मनोवैज्ञानिक सत्य बता रहे हैं कि सकाम कर्म करने के लिए बुद्धि का उपयोग करना बिलकुल निकृष्टतम उपयोग है बुद्धि का। We are underutilizing the great power of Intellect that we have been blessed with.

बुद्धियोग का मतलब है, जिस दिन हम बुद्धि रुपी द्वार का बाहर के जगत के लिए नहीं, बल्कि अन्दर जाने के लिए, स्वयं को जानने की यात्रा के लिए प्रयोग करते हैं। तब सौ प्रतिशत बुद्धि की जरूरत पड़ती है। तब स्वयं—प्रवेश के लिए समस्त बुद्धिमत्ता पुकारी जाती है।

अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, धनंजय, तू बुद्धियोग को उपलब्ध हो।

तू बुद्धि का भीतर जाने के लिए, स्वयं को जानने के लिए, उसे जानने के लिए जो सब चुनावों के बीच में चुनने वाला है, जो सब करने के बीच में करने वाला है, जो सब घटनाओं के बीच में साक्षी है, जो सब घटनाओं के पीछे खड़ा है दूर, देखने वाला द्रष्टा है, उसे तू खोज। और जैसे ही उसे तू खोज लेगा, तू समता को  उपलब्ध हो जाएगा। फिर ये बाहर की चिंताएं—ऐसा ठीक, वैसा गलत—तुझे पीड़ित और परेशान नहीं करेंगी। तब तू निश्चित भाव से जी सकता है। और वह निश्चितता तेरी समता से आएगी, तेरी बेहोशी से नहीं।

We are all Spiritual warriors. We must constantly keep fighting, against our inner enemies of ego gratification and sense attractions. When our intellect becomes pure, we are able to have equanimity of mind. This awareness, this equanimity alone can help us cultivate a single-minded focus and an unwavering resolve to perform our best Karma in this life. It is then we start creating our own destiny. It is then We Start Designing An Extraordinary Life For Ourselves.

 पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते 

 शान्तिः शान्तिः शान्तिः 

 

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